कर्मेश प्रताप सिंह ने सुप्रीम कोर्ट की एडवोकेट रीना एन सिंह के माध्यम से की शिकायत
(शीतल निर्भीक ब्यूरो)
लखनऊ। उत्तर प्रदेश सचिवालय में कथित धोखाधड़ी और अनियमितताओं पर गंभीर आरोप लगाते हुए कर्मेश प्रताप सिंह ने अपने वकील रीना एन सिंह के माध्यम से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को एक गंभीर शिकायत भेजी है। इस शिकायत में उत्तर प्रदेश विधान सभा सचिवालय के प्रधान सचिव प्रदीप कुमार दुबे पर धोखाधड़ी, भ्रष्टाचार और सेवा नियमों के घोर उल्लंघन के कई गंभीर आरोप लगाए गए हैं। यह लड़ाई भ्रष्टाचार के खिलाफ है।
आरोप है कि प्रदीप कुमार दुबे 66 वर्ष 8 महीने की आयु पूरी कर चुके हैं, लेकिन वे अभी भी प्रधान सचिव के पद पर अवैध रूप से बने हुए हैं, जबकि उनका कार्यकाल काफी पहले समाप्त हो जाना चाहिए था, उन्होंने सेवानिवृत्ति के नियमों का उल्लंघन किया है और बिना किसी वैध सेवा विस्तार या पुनर्नियुक्ति आदेश के अपनी सेवा जारी रखी है। आरटीआई जवाबों और आदेशों से यह पुष्टि हुई है कि प्रदीप दुबे का कार्यकाल 2019 में ही समाप्त हो गया था, जिसके बाद उनका कथित रूप से अवैध स्व-विस्तार जारी रहा। शिकायत में यह भी कहा गया है कि दुबे ने व्यक्तिगत लाभ के लिए नियुक्ति नीतियों में हेरफेर की और विधानसभा या राज्यपाल कार्यालय से कोई आधिकारिक अधिसूचना प्राप्त किए बिना अपने कार्यकाल का विस्तार किया, शिकायत में कहा गया है कि जुलाई 2008 में प्रदीप कुमार दुबे को प्रधान सचिव, विधान सभा का अतिरिक्त प्रभार दिया गया था, जिसे एक अस्थायी व्यवस्था के रूप में निर्धारित किया गया था। हालांकि, 13 जनवरी 2009 को न्यायिक सेवा से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने के तुरंत बाद, उन्हें उसी दिन संसदीय कार्य विभाग में प्रधान सचिव के रूप में नियुक्त किया गया। इसके बाद, 19 जनवरी 2009 को उन्हें उत्तर प्रदेश विधान सभा के प्रधान सचिव के रूप में अतिरिक्त कर्तव्यों का निर्वहन करने की अनुमति दी गई। आरोप है कि दुबे ने 2010-2011 में सेवा नियमों में अवैध रूप से संशोधन किया, जिससे लोक सेवा आयोग, उत्तर प्रदेश से नियुक्ति का अधिकार छीन लिया गया और मनमानी नियुक्तियों के लिए विधानसभा अध्यक्ष की प्रक्रिया के अधीन कर दिया गया। ये संशोधन कथित तौर पर गुप्त रूप से किए गए और सदन के समक्ष नहीं रखे गए। 27 जून 2011 को, दुबे को “सेवा स्थानांतरण” के आधार पर संसदीय कार्य से विधान सभा के प्रधान सचिव के रूप में नियुक्त किया गया, जो कि एक अवैध प्रक्रिया बताई गई है, आरोप यह भी है कि 6 मार्च 2012 को, विधानसभा आम चुनाव 2012 के लिए आचार संहिता लागू होने के बावजूद, उन्होंने तत्कालीन अध्यक्ष सुखदेव राजभर से नियुक्ति आदेश प्राप्त किया, जो चुनाव हार चुके थे। इसके अलावा, प्रदीप दुबे ने 30 अप्रैल 2017 को अपनी अधिवर्षिता आयु पूरी कर ली थी, और 30 अप्रैल 2019 को उनकी सेवानिवृत्ति की आधिकारिक अधिसूचना भी जारी की गई थी। इसके बावजूद, वे बिना किसी वैध आदेश के अवैध रूप से पद पर बने हुए हैं। आरोप है कि उन्होंने 19 अक्टूबर 2019 को एक हलफनामे में अपनी आयु 57 वर्ष बताई, जो उनकी वास्तविक आयु से काफी कम थी, ताकि वे 2027 तक पद पर बने रह सकें।
उच्च-स्तरीय जांच आदेशों का दमन और कर्मचारियों का उत्पीड़न शिकायत में यह भी उल्लेख किया गया है कि मुख्यमंत्री कार्यालय, प्रधानमंत्री कार्यालय, राज्यपाल सचिवालय और कार्मिक, लोक शिकायत और पेंशन मंत्रालय जैसे उच्च-स्तरीय अधिकारियों द्वारा प्रदीप कुमार दुबे के खिलाफ जांच के कई आदेश जारी किए गए थे, लेकिन दुबे ने कथित रूप से अपने पद का दुरुपयोग करके इन सभी आदेशों को दबा दिया। दुखद बात यह है कि दशकों से प्रदीप दुबे के खिलाफ कई जांचें लंबित हैं, लेकिन व्यवस्था ऐसी है कि आरोपी व्यक्ति खुद अपनी जांच करता है और अपने ही खिलाफ तथ्य प्रस्तुत करता है। यह अपने आप में चिंता का विषय है, क्योंकि सभी जांचें उनके कार्यालय में ही मार्क की जाती हैं। प्रदीप दुबे के खिलाफ केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) की जांच भी लंबित है।
यह भी आरोप है कि दुबे और उनके सहयोगियों ने कर्मचारियों को परेशान किया। लाल रत्नाकर सिंह, जो विधान सभा कर्मचारी संघ के अध्यक्ष थे, को दुबे की कार्रवाई का विरोध करने के लिए कथित रूप से झूठे आरोपों में फंसाया गया और जेल भेजा गया। प्रेमपाल नामक एक कर्मचारी ने कथित उत्पीड़न के कारण आत्महत्या कर ली। सहायक चंद्र प्रकाश को भी झूठे कारणों से बर्खास्त कर दिया गया।
प्रदीप दुबे के कार्यकाल में सहायक समीक्षा अधिकारी और समीक्षा अधिकारी के पदों पर विज्ञापन से अधिक नियुक्तिों में भाई भतीजावाद के सारे साक्ष्य भी भेजे गए हैं।
शिकायत में कहा गया है कि प्रदीप कुमार दुबे की कार्रवाइयां कई कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों का गंभीर उल्लंघन करती हैं, जैसे कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 309 (सेवा नियमों में हेरफेर), सेवानिवृत्ति आयु नियम का उल्लंघन, पद का दुरुपयोग (भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988), और भारतीय दंड संहिता की विभिन्न धाराएँ (धोखाधड़ी, जालसाजी, आपराधिक विश्वासघात)। उन पर अदालत की अवमानना का भी आरोप है क्योंकि उन्होंने उच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद जवाबी हलफनामा दायर नहीं किया। यह भी आरोप है कि प्रदीप दुबे के मार्गदर्शन में, सरकार और विधानसभा के वकीलों द्वारा यह तथ्य माननीय न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं किया गया कि कर्मेश प्रताप सिंह एक स्थायी कर्मचारी थे और उन्हें सेवा से नहीं हटाया जा सकता। माननीय न्यायालयों के समक्ष सच्चे तथ्य प्रस्तुत नहीं किए गए।
कर्मेश प्रताप सिंह ने बताया कि उन्हें 14 जुलाई 2016 को सूचना अधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया था और 2019 में उन्हें स्थायी कर्मचारी के रूप में पुष्टि मिली। उनका सेवा रिकॉर्ड उत्कृष्ट था, लेकिन एक असफल उम्मीदवार की याचिका के आधार पर उन्हें बिना किसी जांच या अनुशासनात्मक कार्रवाई के मनमाने ढंग से बर्खास्त कर दिया गया।सिंह ने मुख्यमंत्री से प्रदीप कुमार दुबे को तत्काल पद से हटाने, उनके खिलाफ उच्च न्यायालय के न्यायाधीश या सीबीआई द्वारा निष्पक्ष जांच शुरू करने, विधान सभा सचिवालय में अवैध नियुक्तियों से संबंधित याचिका पर त्वरित कार्रवाई करने और प्रदीप दुबे तथा अन्य दोषी अधिकारियों के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई करने का अनुरोध किया है। इसके साथ ही, कर्मेश प्रताप सिंह ने अपनी तत्काल बहाली, सेवा की निरंतरता, सभी अधिकारों और लाभों की बहाली, और लंबित पदोन्नति की भी मांग की है।